Thursday, September 27, 2018

ऑस्कर जाने वाली फ़िल्म को है सरकारी मदद का इंतज़ार

डिजिटल कैमरा पर बनी फ़िल्म 'विलेज रॉकस्टार' ऑस्कर के लिए भारत की ओर से भेजी जा रही है लेकिन फ़िल्म को इंतज़ार है, सरकार की मदद का.
ऑस्कर अवॉर्ड का सपना शायद हर फ़िल्ममेकर देखता है. फ़िल्म 'विलेज रॉकस्टार' के लिए नेशनल अवॉर्ड जीतने वाली निर्देशिका रीमा दास ने फ़िल्म मेकिंग सीखने के लिए किसी भी तरह की कोई ट्रेनिंग या इंस्टीट्यूट में दाख़िला नहीं लिया था.
इसके बावजूद भी उनकी फ़िल्म 'विलेज रॉकस्टार' ऑस्कर के लिए नामांकित हुई है. इस फ़िल्म को बनाने में उन्हें पूरे चार साल लगे. इस दौरान उन्होंने कई उतार-चढ़ाव देखे.
बीबीसी से ख़ास बातचीत में रीमा दास ने बताया कि फ़िल्म बनाने के दौरान तो उन सभी चुनौतियों और परेशानियों को तो उन्होंने बड़ी आसानी से झेल लिया लेकिन असली चुनौती और परेशानी तो अब शुरू होने वाली है.
उनका कहना था, ''मेरे जैसे फ़िल्ममेकर के लिए ऑस्कर में जाकर वहां का ख़र्चा निकालना सबसे बड़ी चुनौती और मुश्किल का काम है. मैंने कई ऐसे लोगों से बात की है जिनकी फ़िल्म पहले ऑस्कर के लिए जा चुकी है और उनसे मुझे पता चला है कि ऑस्कर में जाने के लिए आपके पास अच्छी ख़ासी रक़म होनी चाहिए क्योंकि वहां रहने और खाने के ख़र्चे के अलावा आपको अपनी फ़िल्मों की स्क्रीनिंग ख़ुद करवानी होती है."फ़िल्म का प्रचार भी करना पड़ता है. पूरा ख़र्चा आपको ख़ुद उठाना पड़ता है और मेरे जैसे सामान्य और अकेले फ़िल्ममेकर के लिए ये बहुत ही मुश्किल है क्योंकि मेरे पीछे किसी बड़े प्रोड्यूसर और स्टूडियो का सहयोग नहीं है.''
रीमा दास को उम्मीद है कि शायद असम की राज्य सरकार उनकी मदद करे. वो कहती हैं, ''असम के लिए ये पहला मौक़ा है कि इस राज्य से पहली बार कोई फ़िल्म ऑस्कर के लिए जा रही है. ख़ुशी इस बात की भी है कि सोशल मीडिया पर सब मुझे पैसे की मदद देने को तैयार हैं."
"लेकिन मुझे इंतज़ार है असम सरकार की मदद का. अगर वहां से मदद हो गई तो मैं फिर किसी से कोई पैसे नहीं लूंगी. लेकिन अगर वक़्त रहते पैसे नहीं मिले या कम मिले तब ज़रूर सोशल मीडिया के ज़रिये मदद लूंगी. फ़िलहाल मुझे इंतज़ार है सरकार की मदद का.''
बहुत पैसा ख़र्च होता है ऑस्कर के लिए
दृश्यम फ़िल्म्स के प्रोडक्शन में बनी फ़िल्म 'न्यूटन' पिछले साल 2017 में ऑस्कर के लिए नामांकित हुई थी. दृश्यम फ़िल्म्स के फ़ाउंडर मनीष मुंद्रा ने रीमा दास की फ़िल्म 'विलेज रॉकस्टार' को ऑस्कर में जाने के लिए 10 लाख रुपये की मदद की है.
इस बारे में जानकारी देते हुए दृश्यम फ़िल्म्स की ऋतिका भाटिया कहती हैं, ''मैं और मनीष, हम दोनों को रीमा की इस कोशिश पर नाज़ है. वो बहुत ही मेहनती हैं. हमें उस पर पूरा भरोसा है. लेकिन इस बात पर कोई शंका नहीं है कि रीमा दास जैसे एकल फ़िल्ममेकर्स के लिए अपनी फ़िल्म को ऑस्कर तक पहुंचाना बहुत मुश्किल हो जाता है. पिछले साल न्यूटन के वक़्त ये सब हमने ख़ुद महसूस किया है.''
वो कहती हैं कि पैसे होने के बावजूद भी वो लोग फ़िल्म को उतना प्रमोट नहीं कर पाए जितना करना चाहिए क्योंकि इसमें वहां अच्छा ख़ासा पैसा लग जाता है. इसके अलावा भी कई तरह की परेशानियां होती हैं.
ऋतिका कहती हैं, ''हमारी फ़िल्म न्यूटन 93 इंटरनेशनल फ़िल्मों से मुक़ाबला कर रही थी. सिर्फ़ नौ फ़िल्म फाइनल सिलेक्शन तक पहुँचती हैं और उनमें से टॉप पांच फ़िल्में ही फ़ाइनल में जाती हैं और उनमें से एक ही जीतती है.
हम भारतीय फ़िल्ममेकर को वहां जाकर सबसे पहले एकेडमी के सदस्यों को ढूंढना पड़ता है और ये सदस्य हर साल बदल जाते हैं. इसलिए हमें एक अच्छा पब्लिसिस्ट ढूंढना पड़ता है जो हमारी फ़िल्मों को प्रमोट कर सके. उसके लिए 10 हज़ार डॉलर से लेकर 50 हज़ार डॉलर तक का ख़र्च आ जाता है.
"इसके बाद फिल्म के विज्ञापन में अच्छे-ख़ासे पैसे लग जाते हैं. उसके बाद आती है स्क्रीनिंग वो भी आपको ख़ुद करवानी होती है. कोशिश करनी होती है कि जितना ज़्यादा स्क्रीनिंग कर सके क्योंकि उतना ही आपको फ़ायदा होगा."
ये सब करने में बड़े से बड़े फ़िल्म्स स्टूडियो के प्रोड्यूसर की भी हालत ख़राब हो जाती है तो आप सोच ही सकते हैं कि बेचारे इंडिविजुअल फ़िल्ममेकर की क्या हालत होती होगी?''
अब तक सिर्फ़ आमिर खान की फ़िल्म 'लगान' ही ऑस्कर की फ़ाइनल लिस्ट तक पहुंच पाई है. फ़िल्म की मार्केटिंग करने के लिए आपके पास अच्छा ख़ासा पैसा होना चाहिए जैसे आमिर ख़ान के पास था. आमिर ख़ान पूरे दो महीने वहीं रहे. अपनी पूरी टीम के साथ. अच्छे पब्लिसिस्ट और स्क्रीनिंग के अलावा बिग स्टार होने की वजह से वो अपनी फ़िल्म को भी बेहतर तरीक़े से प्रोमोट कर पाए थे.
लेकिन ऐसा करना सबके बस की बात नहीं है. ऋतिका के अनुसार भारत से ऑस्कर भेजने की पूरी प्रक्रिया में बदलाव लाने की ज़रूरत है.
वो कहती हैं कि सबसे पहला बदलाव तो ये होना चाहिए कि बाक़ी हॉलीवुड फ़िल्मों की तरह भारत से जाने वाली फ़िल्मों की घोषणा भी जून या जुलाई में ही हो जानी चाहिए ताकि फ़िल्ममेकर्स को थोड़ा वक़्त मिल जाए.
फ़िलहाल भारत से ऑस्कर में जाने वाली फ़िल्मों की घोषणा सबसे आख़िर में सितंबर के महीने में होती है जिससे किसी भी तरह की तैयारी नहीं हो पाती है.
मूल रूप से असम की रहने वाली रीमा दास ने एमबीए की पढ़ाई की और नेट का एग्ज़ाम भी पास किया लेकिन बचपन से ही उनका रुझान एक्टिंग की तरफ़ ही था.
इसलिए वो 2003 में मुंबई आई और यहाँ आकर उन्होंने कई ईरानी, कोरियन और यूरोपियन फ़िल्म देखी और जब उन्होंने सत्यजीत रे की फ़िल्में देखी तो उनका लगाव फ़िल्ममेकिंग की तरफ़ और ज़्यादा हो गया.
रीमा कहती हैं, ''मेरी पहली शॉर्ट फ़िल्म 'प्रथा' थी जिसे मैंने कई फ़िल्म फ़ेस्टिवल में भेजा और लोगों ने जब उस फ़िल्म के लिए मेरी तारीफ़ की तो मेरी हिम्मत दोगुनी हो गई और तब मैंने 'विलेज रॉकस्टार' बनाने का फ़ैसला किया.
"इस फिल्म का राइटिंग, डायरेक्शन, प्रोडक्शन, एडिटिंग, शूटिंग से लेकर कॉस्ट्यूम डिज़ाइनिंग सब कुछ ख़ुद मैंने किया है और वो भी डिजिटल कैमरा और लेंस से क्योंकि मेरे पास इतने पैसे नहीं थे जिससे मैं अपनी टीम बना सकूं या तकनीकी सामान ख़रीद सकूँ. फ़िल्ममेकिंग के लिए पैसे मेरे परिवार और मैंने खुद जुटाए हैं."
"चीज़ों के अभाव के चलते मुझे एक-एक सीन के लिए कई महीनों या फिर एक-दो साल लगे हैं. यही वजह है कि इसे बनाने में मेरा और मेरे बाल कलाकारों का चार साल का वक़्त लग गया.''
रीमा दास कहती हैं कि 'विलेज रॉकस्टार्स' कहानी है धुनु नाम की एक छोटी बच्ची की जो आगे जाकर एक रॉकस्टार बनना चाहती है, पर उसकी विधवा मां के लिए उसे एक गिटार ख़रीद कर देना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है.
धुनु अपनी ग़रीबी के आगे झुकती नहीं है और एक नकली गिटार बनाकर अपने साथियों के साथ एक बैंड बना लेती है. एक तरफ़ अपने सपनों की दुनिया में खोए बच्चों का ये रॉकबैंड और दूसरी तरफ़ बाढ़ जैसे कई मुश्किल हालातों से जूझता गांव वालों का जीवन, यही है विलेज रॉकस्टार्स की कहानी.

Monday, September 17, 2018

印度版“大气十条”恐难以服众

在过去几年中,有关印度空气污染危机的报道一直占据着新闻头条。首都德里的污染状况和公众健康成本在媒体报道中已成为“民族危机”。

不仅如此,科学家们还报告说,空气污染还会影响气候模式,其中包括能够给南亚地区带来赖以生存的重要降雨的季风。

当然,这个问题并不是印度所独有的。孟加拉国的首都达卡也面临着空气污染的威胁。巴基斯坦国内监测站数量不足则表明该国对危机的认识不足。

在印度,冬季来临之前焚烧秸秆产生的雾霾笼罩德里,空气污染也在此时达到峰值。不过污染问题会持续一整年,而且不止是德里,小城市里的污染问题甚至有可能更加严重。但是,由于数据收集量有限,而且媒体很少关注,使得这些省份的问题基本上都被忽视了。

清洁空气计划

在这种背景下,由印度环境、森林和气候变化部起草的“国家清洁空气计划”( )被寄予厚望。在19页的“国家清洁空气计划草案”中有很大一部分是在质疑、轻视世界卫生组织等国际组织的研究成果。在空气污染问题上,内政部、中央污染控制委员会( )和国家污染控制委员会仍基本上持否定态度。

随着印度人呼吸系统疾病发病率越来越高,城市里的医生发现这类疾病的发病率,尤其是儿童和老人罹患此类疾病的几率与污染严重的地区之间有着直接的关系。因此,政府部门的上述否认缺乏可信度。

更令人惊讶的是,目前该部门的领导本人正是一位医生;他作为一名医务工作者的亲身经历,以及与同事之间的交流本应该能够说服他,让他明白空气污染问题并未被任何人夸大。

值得欣慰的是,环境部与印度医学研究委员会( )联合组建了一个团队,重点研究空气污染对健康的影响。但现在, 草案指出,该团队的报告将由环境和卫生部门进一步审查。虽然做好研究很重要,但不应以此作为推迟行动的借口。不幸的是, 草案给人的印象就是出于这样的目的。

该计划直到5月17日才开始征求公众意见。不幸的是,由于草案编制水平较差,在咨询独立专家和空气污染受害者之后,恐怕需要重新起草。尤其是在当下,世界卫生组织( )声明称,2010-2016年全世界15个污染最严重的城市中有14个在印度,重新编制草案就更加重要。