Thursday, August 30, 2018

किसान आत्महत्याओं की बंजर ज़मीन पर उम्मीदें बोता एक स्कूल

महाराष्ट्र के बीड ज़िले में इस बार भी मानसून देर से ही आया है. काली मिट्टी के खेतों को पार करते हुए हम यहां मौजूद बालाघाट की पहाड़ियों के बीच बसे थलसेरा गांव पहुंचते हैं.
यहां खेतों के बीच बने एक कमरे के घर में 65 वर्षीय लक्ष्मी बाई अपनी एक बकरी और दो मुर्ग़ियों के साथ रहती हैं. उनका पूरा परिवार इलाक़े में दो दशकों से चल रही किसान आत्महत्याओं की वजह से बिखर गया.
ज़िले के सैकड़ों दूसरे किसानों की तरह ही, लक्ष्मी के पति ने भी कर्ज़ के चलते कुएँ में कूदकर आत्महत्या कर ली थी. बदहाली से परेशान उनका बेटा शिवाजी खेतों में मज़दूरी करने लगा, लेकिन उनकी भी जल्दी ही एक सड़क दुर्घटना में मौत हो गई.
शिवाजी की मौत के बाद एक सुबह अचानक लक्ष्मी की बहू नंदा अपने तीनों बच्चों को छोड़कर कहीं चली गई. लेकिन यह कहानी लक्ष्मी या उनके किसान पति या बेटे की नहीं है.
साथ ही ये कहानी मराठवाड़ा के उन सभी बच्चों की है जिनकी एक पूरी पीढ़ी घर में माता-पिता या किसी अन्य परिजन को खेती के नाम पर लिया गया क़र्ज़ न चुका पाने की वजह से आत्महत्या करते देख चुकी है. और अब ये इलाक़े में चल रहे 'शांतिवन' नाम के एक स्कूल की मदद से अपने पैरों पर वापस खड़े होने की कोशिश कर रहे हैं.
लक्ष्मी बाई का 14 वर्षीय पोता सूरज शिवाजी राव अपनी दो छोटी जुड़वां बहनों के साथ बीड के अरवि गांव में बने इसी स्कूल में पढ़ता है. माँ के जाने के बाद भाई के बच्चों की देखभाल करने वाली सूरज की बुआ जीजा बाई बताती हैं कि किसान आत्महत्या के दुष्चक्र में फंसे परिवारों के लिए 'शांतिवन' उम्मीद की एक किरण है.
"शुरू-शुरू में तो बच्चे बहुत रोते थे. उनके दादा ने ख़ुदकुशी कर ली...पिता एक्सीडेंट में मारे गए... माँ रोता छोड़ के चली गई...पर इतना सब कुछ समझने के लिए वो बहुत छोटे थे. सूरज सात साल का था और उसकी बहनें तो सिर्फ़ 4-4 साल की थीं. बच्चे पूरे गांव में घूम-घूम कर अपने माता-पिता को ढूँढ़ते. घर-घर जाकर पूछते कि मेरी मां कहां है? हमें कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें. तभी शांतिवन के आवासीय स्कूल के बारे में पता चला और हमने तुरंत बच्चों को वहां पढ़ने के लिए भेज दिया."
सूरज से मिलने के लिए हम थलसेरा से 45 किलोमीटर दूर अरवि गांव में मौजूद शांतिवन स्कूल के आवासीय परिसर में पहुंचते हैं. यहां नवीं कक्षा में पढ़ रहे सूरज के साथ साथ हमारी मुलाक़ात शांतिवन के संस्थापक और प्रधानाध्यापक दीपक नागरोजे से भी होती है.
बाबा आम्टे से प्रभावित दीपक ने आज से 18 साल पहले अपने परिवार की 7.5 एकड़ ज़मीन पर शांतिवन की स्थापना की थी. "मैं 18 साल का था जब मैंने बाबा आम्टे के काम के सम्पर्क में आया. उसके बाद मुझे लगा कि अपने लिए तो सभी जीते हैं, मज़ा तो दूसरों के लिए जीने में है. मैं बीड के बालाघाट इलाक़े से आता हूँ. हमारे यहाँ ज़मीन पथरीली है और खेतों में सिर्फ़ एक फ़सल हो पाती है."
"हर दूसरे साल सूखा भी पड़ता है. इसलिए यहां खेती हमेशा से संकट में रही. क़र्ज़ में डूबे किसान सालों से आत्महत्या कर रहे हैं. मैंने सोचा की अपनी जान ख़ुद लेने वाले इन किसानों के बच्चों का क्या होता होगा? परिवार के बड़ों के जाने के बाद इनकी परवरिश और पढ़ाई-लिखाई तो सब ठप्प हो जाती होगी."
यही ग़रीबी और बेरोज़गारी फिर नई आत्महत्याओं का कारण बनते हैं. कर्ज़ के इस दुष्चक्र को पहचानने वाले दीपक ने किसान आत्महत्याओं वाले परिवारों को चिन्हित कर उनके बच्चों को मुफ़्त में पढ़ाना शुरू किया.
वह जोड़ते हैं, "आज शांतिवन में कुल 800 बच्चे पढ़ते हैं. इनमें से 300 बच्चे यहां स्कूल होस्टलों में रहते हैं. इन 300 आवासीय बच्चों में 200 बच्चे किसान आत्महत्याओं वाले परिवारों के बच्चे हैं. इनके रहने-खाने और पढ़ने की पूरी व्यवस्था स्कूल परिसर में ही है."
बिना किसी सरकारी मदद के नर्सरी से कक्षा 10 तक चलने वाले इस स्कूल को चलाने के लिए दीपक अपनी पारिवारिक ज़मीन पर उपजाए गए अनाज और सब्ज़ियों के साथ-साथ व्यक्तिगत अनुदान भी स्वीकार करते हैं.
लंच के लिए स्कूल की मेस की तरफ़ जाता हुआ सूरज अपने गांव थलरेसा की परिस्थितियों से दूर एक ख़ुशहाल बच्चा लगता है. गांव और दादी के बारे में पूछने पर उसकी आंखें तुरंत छलछला जाती हैं.
"कभी-कभी घर की याद आती है. पर मैं यहाँ ख़ुश हूँ. स्कूल में हम इतिहास, नागरिक शास्त्र, मराठी, हिंदी, गणित और भूगोल जैसे सभी विषय पढ़ते हैं. यहां मेरे अच्छे दोस्त भी बन गए हैं. मैं यहां पढ़कर आगे डॉक्टर या इंजीनियर बनना चाहता हूँ."
सूरज की ही तरह शांतिवन में बड़ी हुई बीड के गेओराइ तहसील की रहने वाली पूजा किशन आऊटे आज ज़िला मुख्यालय में कंप्यूटर विज्ञान में स्नातक की पढ़ाई कर रही हैं. पीढ़ी दर पीढ़ी आत्महत्या के दुश्चक्र में फंसे मराठवाड़ा और विदर्भ के किसान परिवारों के लिए पूजा एक मिसाल बन सकती हैं.
काली जींस और गाजरी रंग की क़मीज़ पहने मेरे सामने खड़ी 20 साल की पूजा पहली मुलाक़ात में ही अपने उत्साह और गर्मजोशी से आपको प्रभावित करती हैं. अपनी ख़ुशमिज़ाजी और ऊर्जा के पीछे तकलीफ़ों का पहाड़ छिपाए बैठी पूजा बड़ी होकर अपने इलाक़े के किसान परिवारों की ज़िंदगी को बेहतर बनाना चाहती हैं.
अपने परिवार और पढ़ाई के बारे में बताते हुए वह जोड़ती हैं, "मेरे पिताजी ने खेती के लिए कर्ज़ लिया था जो वह चुका नहीं पा रहे थे. हमारी ज़मीन बहुत कम थी...जिसपर मेरे पिता अपने बड़े भाई के साथ मिलकर खेती करते थे. पर मेरे ताऊ सारा पैसा ख़ुद रख लेते और कर्ज़ मेरे पिता के सर रह जाता. उन्होंने ज़मीन ठेके पर लेकर भी खेती की, पर कर्ज़ नहीं उतरा. मांगने वाले घर आते तो वह कह देते की दे दूंगा. लेकिन अंदर ही अंदर टेंशन में रहते".ब पूजा दसवीं कक्षा में थीं, तब एक दिन अचानक उनके पिता ने अपने हाथ-पैर रस्सी से बांधे और अपने घर के पास बने कूएँ में कूद गए.
अपनी मासूम आंखों में पानी लिए पूजा आगे बताती हैं, "उनको तैरना आता था और उन्हें लगा होगा कि वो तैर कर ऊपर आ सकते हैं. इसलिए उन्होंने अपने हाथ-पैर बांधकर कुएँ में छलांग लगाई. मेरे घर में अब सिर्फ़ मेरी माँ हैं जो मज़दूरी करके अपना गुज़ारा करती हैं."
लेकिन अपनी त्रासदी को भुलाकर एक नई शुरुआत करने वाली पूजा स्नातक के बाद आगे और पढ़ना चाहती हैं. "मैं आगे मास्टर डिग्री भी करूंगी और उसके बाद किसी अच्छी कम्पनी में जॉब करूंगी. नौकरी लगते ही सबसे पहले मैं अपनी मां को गांव से यहां ले आऊंगी. मैं उसे हमेशा अपने साथ रखूंगी और कभी भी खेती नहीं करने दूंगी."

No comments:

Post a Comment